चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सुप्रीम कोर्ट की पहल
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के बारे में जो फैसला सुनाया है, वह चुनाव सुधार की दिशा में एक बड़ी और सराहनीय पहल है। हाल के वर्षों में निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्तियों पर जैसे सवाल उठे और आयोग के फैसले भी जिस तरह से सरकार के मुफीद दिखे उससे इस संस्थान की प्रतिष्ठित छवि प्रभावित हुई है।
अब अदालत ने व्यवस्था दी है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के मामले में, इससे संबंधित कानून बनने तक, प्रधानमंत्री, प्रधान न्यायाधीश और विपक्ष या लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता की सलाह से राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। अब तक इनकी नियुक्ति सरकार द्वारा ही की जाती रही है।
दरअसल, संविधान में चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को लेकर कोई प्रक्रिया नहीं सुझाई गई है। इस तरह सरकार की अपनी पसंद के नाम इस पद के लिए सुझाती रही है, जिस पर राष्ट्रपति की मंजूरी मिल जाती रही है।।
कुछ सालों से निर्वाचन आयोग के कामकाज पर सवाल उठते रहे हैं और सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर करके कालेजियम जैसी कोई व्यवस्था बनाने की मांग की जाती रही है।
उन याचिकाओं पर विचार करने के बाद संविधान पीठ ने एक कालेजियम जैसी व्यवस्था कायम की है। लोकतंत्र में निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और इसे सुनिश्चित कराना चुनाव आयोग का दायित्व होता है। मगर अनेक मौकों पर आयोग पर पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाने संबंधी आरोप लगते रहते हैं।
लेकिन ऐसा कहना और मान लेना पूरी तरह उचित नहीं है, क्योंकि कई बार निर्वाचन आयोग ने सरकार के खिलाफ भी कड़ा रुख अपनाया है। मगर इस बार वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति विवाद का विषय बन गई। सरकार ने हड़बड़ी में नियमों को ताक में रखकर चुनाव
आयुक्तों की नियुक्ति कर दी।
यह विवाद सुप्रीम कोर्ट तक भी गया और अदालत ने सरकार से सवाल किया कि इस हड़बड़ी की जरूरत क्यों पड़ी। बहरहाल, अदालत की नई व्यवस्था से सरकार के लिए अपनी पसंद थोपना आसान नहीं होगा। मगर यहां यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है। कि सीबीआई प्रमुख की नियुक्ति भी कालेजियम सिस्टम से होता है, तो सीबीआई के कामकाज पर सवाल क्यों खड़े किए जाते हैं? क्यों कहा जाता है कि सीबीआई सरकार के दबाव में काम करती है।।
फिर जहां तक पारदर्शिता के महत्व का सवाल है तो फिर जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता लाने के लिए पैनल व्यवस्था क्यों नहीं लागू की जानी चाहिए ? न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करें, तो क्या यह पूर्णतः उचित है?