जाति जनगणना कितना सार्थक -समसामयिकी लेख
राजनितिक दलो द्वारा जातिगत जनगणना की मांग ?क्या जातिवाद जनगणना से जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा !
जाति जनगणना की मांग एक बार फिर तेज हो रही है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखकर जाति जनगणना करवाने की मांग की है। इससे पहले कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने यह मामला उठाया था। कांग्रेस नेताओं का कहना है कि भाजपा अगर ओबीसी के प्रति कोई लगाव रखती है तो सरकार को 2011 में हुई जाति जनगणना के आंकड़ों को उजागर करना चाहिए। इस जनगणना में 25 करोड़ परिवारों को शामिल किया गया था। हालांकि इसके आंकड़े जारी नहीं किए गए। ऐसी मांगें नई नहीं हैं लेकिन जिस समय यह मांग उठाई गई है उससे लगता है कि विपक्ष सामाजिक न्याय को चुनावी मुद्दा बनाकर भाजपा के साथ मुकाबले के प्रयास कर रहा है।
आगामी चुनाव में जातिगत जनगणना कितना सार्थक साबित होगा ।
अभी यह देखना है कि आगामी चुनाव में यह मुद्दा कारगर साबित होता है। मगर अभी देश जिन हालात से गुजर रहा है, ऐसे में जातीय राजनीति पर ध्यान केन्द्रित करना उचित प्रतीत नहीं होता। निश्चित रूप से जाति आधारित जनगणना का विचार अधिक आरक्षण की ओर ले जाने वाला है और इससे सरकार व्यय में बदलाव आएगा क्षेत्रीय दल जाति आधारित जनगणना का जमकर समर्थन कर रहे हैं। बिहार में तो जाति आधारित जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक कर दी गई है। सरकार ने 2021 में संसद को बताया था कि नीतिगत रूप से उसने निर्णय लिया है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अलाव शेष आबादी को जाति के आधार पर अलग-अलग नहीं गिनेगी। लेकिन राजनीतिक दृष्टि से अभी यह स्पष्ट नहीं है कि अगर यह मुद्दा चुनावी दृष्टि से जोर पकड़ गया तो भाजपा क्या करेगी? अभी तक भाजपा जाति से परे आर्थिक पहचान का लाभ लेने में सफल रही है। ऐसे में संभव है कि राजनीतिक बहस में जाति और धर्म की चर्चाएं नजर आएं।।।
जाति आधारित जनगणना से सामाजिक विभाजन बढ़ने के आसार
जाति आधारित जनगणना से सामाजिक विभाजन बढ़ने का खतरा है। अन्य पिछड़ा वर्ग जिस तरह पर सबसे अधिक जोर है वह कोई एक समान समूह नहीं है। उसमें कई उपजातियां हैं तथा अलग-अलग जातियों को अलग-अलग राज्यों में भिन्न-भिन्न दर्जे प्राप्त हैं। इसके अलावा कई राज्यों में प्रभावशाली जातियां इस श्रेणी में आरक्षण पर विचार करने पर ऐसी मांग उठ सकती है। जिनको पूरा करना मुश्किल हो सकता है। बेहतर यही है कि राजनीतिक दल जाति और धर्म की राजनीतिक बहस को त्याग कर आर्थिक विकास पर ध्यान दें।
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